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कभी चुपचाप गुलशन से ग़ुज़र जाने को जी चाहे / रविकांत अनमोल

कभी जी को गुलो गुलशन में उलझाने को जी चाहे
कभी चुपचाप गुलशन से ग़ुज़र जाने को जी चाहे

है मेरा जाम भी ख़ाली सुराही भी तेरी ख़ाली
तिरी महफ़िल से ए साक़ी बस अब जाने को जी चाहे

वफ़ा भी है तिरी आँखों में है कुछ बेवफ़ाई भी
न अब जीने को जी चाहे न मर जाने को जी चाहे

कभी तो साग़र-ओ-मीना हमें बे-कैफ़ लगते हैं
कभी आँखों ही से पी कर बहक जाने को जी चाहे

जहां भी जी लगाता हूं वहां लगता नहीं है जी
जहां से जी को मैं रोकूं उधर जाने को जी चाहे