कभी चेहरा नहीं देखा मगर देखा सा लगता है / अशोक रावत
कभी चेहरा नहीं देखा मगर देखा सा लगता है,
कोई रिश्ता नहीं उससे मगर अपना सा लगता है.
मुझे जब धूप लगती है तो वो लगता है साये सा,
मुझे जब प्यास लगती है तो वो दरिया सा लगता है.
कहीं भी हो उसे मैं दूर से पहचान लेता हूँ,
वो तारों से भरे आकाश में चन्दा सा लगता है.
जहां तक सोच की हद है वहाँ से भी बहुत आगे,
मेरे एहसास में वो दूर तक बिखरा सा लगता है.
वो मेरी धमनियों में बह रहा है एक मुद्दत से,
कभी यमुना सा लगता है कभी गंगा सा लगता है.
उसे महसूस करना है सुबह की रौशनी में यूँ,
कि जैसे फूल कोई ओस में भीगा सा लगता है.
उजाले की विरासत को समेटे अपनी आँखों में,
वो सूरज को विदा देती हुई संध्या सा लगता है.
न बिंदी में, न बिछुओं में,महावर में न मेंहदी में,
वो सारी वासनाओं से अलग मीरा सा लगता है.