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कभी जंगल कभी सहरा कभी दरिया लिखना / शीन काफ़ निज़ाम
Kavita Kosh से
कभी जंगल, कभी सहरा, कभी दरिया लिक्खा
अब कहाँ याद कि हमने तुझे क्या-क्या लिक्खा
शहर भी लिक्खा, मकाँ लिक्खा, मुहल्ला लिक्खा
हम कहाँ के थे मगर उसने कहाँ का लिक्खा
दिन के माथे पे तो सूरज ही लिक्खा था तूने
रात की पलकों पे किसने ये अँधेरा लिक्खा
सुन लिया होगा हवाओं में बिखर जाता है
इसलिए बच्चे ने कागज़ पे घरौंदा लिक्खा
क्या ख़बर उसको लगे कैसा कि अब के हमने
अपने इक ख़त में उसे दोस्त पुराना लिक्खा
अपने अफ़साने की शोहरत उसे मंज़ूर न थी
उसने किरदार बदल कर मिरा क़िस्सा लिक्खा
हम ने कब शेर कहे, हम से कहाँ शेर हुए
मर्सिया एक फ़क़त अपनी सदी का लिक्खा