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कभी तो कह दिया होता / रवीन्द्र दास

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कई सदियों तड़पता रह गया था आस में तेरी
कि गर्दन को घुमा कर
इक नज़र हम पे भी डालोगे
उसी रस्ते की पुलिया पे,
जहाँ से तुम गुज़रते थे,
वहीं कोने में बैठा जोगड़ा
जो गीत गाता था
वही मैं था
ख़ुदा ने भी सज़ा ही दी
कि तुम से दूर ही रखा
तुम्हारी बेख़ुदी ने हम से क़ीमत ही नही मांगी
न देखा ही कि क्योंकर एक बन्दा
आँख से आँसू बहाता है
कि गोया मैं तड़प कर मर गया
ख़ामोश किस्सा कर
कि मेरी रूह ने सुन ली तेरे लब से
मेरी आहट
तभी से आज तक उस मौत पर
अफ़सोस ही आया
कभी तो कह दिया होता
कि मैं रहता हूँ उस दिल में
तो शायद आज मुझको मौत से शिकवा नहीं होता ।