कभी तो खुलेगा (कविता) / सौरभ
दस्तक दो
कभी तो खुलेगा
दर-दरवाज़ा।
नहीं चाहता
खुल जाए कह कर
'सिम सिम'
खुले तो सही
करना पड़े चाहे
कितना ही श्रम।
कभी तो हटेगा
भीतर की अकाल
निकलेंगी कोंपलें
आएगी बहार।
प्रभु है तो
कभी मिलेगा
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष
कभी तो खुलेगा
आम-आदमी के लिए
संसद का द्वार।
बार-बार मिला है
हारों का हार
कभी तो मिलेगा
जीत का द्वार।
कभी तो चलेगा
चौराहे पर खड़ा बुत
बात करेगा
कहेगा
भईया कभी न बनाना
आदमी से बुत।
ध्वस्त है मीनारें
बहती हैं दीवारें
पानी है कि फुँकारता है
कभी तो बनेगा
कोई पुख़्ता पुल
कभी तो हटेगा
दलित का दैत्य
कभी तो मिटेगा
संपन्न का अभिमान
नहीं होगा हवाला-तहलका
कोई तो होगा ऐसा ग्रंथ
नहीं होगा जिसमें लंका-कांड।
होगा तो सही
जो नहीं लेगा माल
सरकारी कलम से
चुपचाप कर देगा काम
होगा तो सही
जो न ले दहेज
कोई तो मिलेगा
ऐसा दामाद।
कभी तो रुकेगा
भीतर का त्रास
बाहर का ह्रास।
सींचता हूँ नित
देता हूँ खाद
कभी तो खिलेगा
मेरा गुलाब।
करता रहता हूँ
सवाल ही सवाल
कभी तो मिलेगा
मुझे मेरा जवाब।
दस्तक दो
कभी तो खुलेगा।