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कभी तो खुल के बरस अब्रे-मेहरबान की तरह / प्रेम वार बर्टनी
Kavita Kosh से
कभी तो खुल के बरस अब्रे-मेहरबान की तरह
मेरा वजूद है जलते हुए मकान की तरह।
भारी बहार का सीना है जख्म ज़ख्म मगर
सबा ने गाये हैं लोरी शफीक मन की तरह।
वो कौम था जो बरहना बदन चट्टानों से
लिपट गया था कभी बहर-इ-बेकरान की तरह।
सकूत-ए-दिल तो जज़ीरा है बर्फ का लेकिन
तेरा खुलूस है सूरज के सायेबान की तरह।
मैं एक ख्वाब सही आप की अमानत हूँ
मुझे संभाल के रखियेगा जिस्म-ओ-जान की तरह।
कभी तो सोच के वो शख्स किस क़दर था बुलंद
जो बिछ गया तेरे क़दमों में आसमान की तरह।
लहू है निस्फ सदी का जिस के आबगीने में
न देख प्रेम उसे चश्म-इ-अर्गवान की तरह।