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कभी तो तीरगी में हैं कभी सहर में हैं / ईश्वरदत्त अंजुम

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कभी तो तीरगी में हैं कभी सहर में हैं
हमें ये लगता है जैसे किसी सफ़र में हैं

हमारा हाले-सफ़र पूछते हो क्या हम से
समेत कश्ती के हम आजकल भंवर में हैं

हर एक बर्क़ हमारे ही घर पे गिरती है
अज़ल से हम तो बलाओं ही की नज़र में हैं

वो लाख खुद को कहे गो अज़ीमो-शाइस्ता
हज़ार नक्स मगर आज के बशर में हैं

हुजूमे-यास में तन्हा न थे कभी इतने
कि आज जितने अकेले हम अपने घर में हैं

हमें भी साबिका गर्दिश से है तो क्या 'अंजुम'
ये चांद, तारे, ये सूरज भी ति सफ़र में हैं।