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कभी तो रात बीतेगी / शिवदेव शर्मा 'पथिक'

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जलाए दीप बैठा हूँ कभी तो रात बीतेगी
 नयन रोते घड़ी पल को निठुर बरसात बीतेगी
चले लू भी, बहे आँधी, कभी पतझाड़ गाएगा,
अरी मझधार की नैया! मचल कल पार आएगा,
लहर की बाहुओं से ही बँधी पतवार आएगी,
झुलस कर भावना मन की मधुर मल्हार गाएगी!
 किनारे पास आएँगे तपन की बात बीतेगी
 जलाए दीप बैठा हूँ कभी तो रात बीतेगी
बुलाकर पास चलता हूँ हवाओं को तूफ़ानों को,
कि मापे जा रहा हूँ मैं उतारों को, चढ़ानों को
पचाकर ही बढ़ा जाता, उबालों को, उफानों को
दिए कुछ जा रहा हूँ मैं ज़माने के दिवानों को
हँसे मुझपर भले दुनिया विजय मनजात जीतेगी
जलाए दीप बैठा हूँ कभी तो रात बीतेगी
किसी उम्मीद पर ही तो जिए जाता ज़माने से
भला बुलबुल कभी रुकती किसी के गुल मचाने से
किसी के चूकने से क्या कभी सूरज नहीं निकला?
हज़ारों मोम जल जाए मगर पत्थर नहीं पिघला।
 मेरी दुल्हन मेरी मंज़िल, विरह की रात बीतेगी
 जलाए दीप बैठा हूँ कभी तो रात बीतेगी
न बँधते पाँव राही के यहाँ जंजीर बनती है
यहाँ पथ रोक देने को बहुत तदबीर बनती है
हज़ारों खाइयाँ मिलतीं हज़ारों ढूह मिलते हैं
यहाँ तो पंक में हर दिन कमल के फूल खिलते हैं।
किरण की पीत बारिश में कली जलजात जीतेगी
 जलाए दीप बैठा हूँ कभी तो रात बीतेगी
किसी के बीज बोने से नरम कलियाँ निकलती हैं
सुना है धीर के तरु में मधुर फलियाँ निकलती हैं
मनुज को जन्म लेने पर चुकाना ब्याज होता है
किसे कैसे मिलेगा पथ न कुछ अंदाज़ होता है
 गगरिया जो छलकती थी-छलकती है न रीतेगी
 जलाए दीप बैठा हूँ कभी तो रात बीतेगी।