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कभी तो समन्दर से कतरा हुआ कर / सुदेश कुमार मेहर

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कभी तो समन्दर से कतरा हुआ कर
यूँ मिल जुल के लोगों से अपना हुआ कर

तुझे देख लूँ बस ज़रूरत न कुछ हो,
किसी रोज़ मेरा भी चहरा हुआ कर

निगाहों से पीछा किया कर हमेशा,
मुझे बाँध ले जो वो पहरा हुआ कर

ये नींदे, हवा, सर्दियाँ, बारिशें, तुम,
मेरे कमरे में एक कमरा हुआ कर

खुली जो किताबें तो फिर क्या तवज़जह,
कोई राज़ मुटठी सा गहरा हुआ कर

बुरा गर कहे कोई तो कान क्यों दें,
कभी अँधा, गूंगा या बहरा हुआ कर