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कभी था नाज़ ज़माने को अपने हिन्द पै भी / बृज नारायण चकबस्त
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कभी था नाज़ ज़माने को अपने हिन्द पै भी
पर अब उरूज<ref>अभ्युदय</ref> वो इल्मो कमालो फ़न<ref>विद्या तथा गुण</ref> में नहीं ।
रगों में ख़ून वही दिल वही जिगर है वही
वही ज़बाँ है मगर वो असर सख़ुन में नहीं ।
वही है बज़्म वही शम्-अ है वही फ़ानूस
फ़िदाय बज़्म वो परवाने अंजुमन में नहीं ।
वही हवा वही कोयल वही पपीहा है
वही चमन है पर वो बाग़बाँ चमन में नहीं ।
ग़ुरूरों जहल ने हिन्दोस्ताँ को लूट लिया
बजुज़ निफ़ाक़<ref>द्वेष</ref> के अब ख़ाक भी वतन में नहीं ।
शब्दार्थ
<references/>