भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कभी दुनिया का जो संबल रहे हैं / मधु 'मधुमन'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी दुनिया का जो सम्बल रहे हैं
बड़ी मुश्किल से अब वह चल रहे हैं

शजर के उठ गए हैं जब से साए
ग़मों की धूप में हम जल रहे हैं

हमें मंज़िल नज़र आए तो कैसे
अँधेरे रास्तों को छल रहे हैं

अभी जो दिख रहे हैं खुरदुरे से
कभी ये हाथ भी मख़मल रहे हैं

जिन्हें आज़ाद बहने की है आदत
समंदर को वह दरिया खल रहे हैं

न बहने दे इन आँखों से तू आँसू
किसी के ख़्वाब इनमें पल रहे हैं

हमारी तो भला हस्ती ही क्या है
सितारे चाँद सूरज ढल रहे हैं

दुआओं का असर होगा किसी की
जो मुश्किल वक़्त ‘मधुमन ‘ टल रहे हैं