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कभी दुनिया का जो संबल रहे हैं / मधु 'मधुमन'
Kavita Kosh से
कभी दुनिया का जो सम्बल रहे हैं
बड़ी मुश्किल से अब वह चल रहे हैं
शजर के उठ गए हैं जब से साए
ग़मों की धूप में हम जल रहे हैं
हमें मंज़िल नज़र आए तो कैसे
अँधेरे रास्तों को छल रहे हैं
अभी जो दिख रहे हैं खुरदुरे से
कभी ये हाथ भी मख़मल रहे हैं
जिन्हें आज़ाद बहने की है आदत
समंदर को वह दरिया खल रहे हैं
न बहने दे इन आँखों से तू आँसू
किसी के ख़्वाब इनमें पल रहे हैं
हमारी तो भला हस्ती ही क्या है
सितारे चाँद सूरज ढल रहे हैं
दुआओं का असर होगा किसी की
जो मुश्किल वक़्त ‘मधुमन ‘ टल रहे हैं