भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कभी देखो तो मौजों का तड़पना / अब्दुल हमीद
Kavita Kosh से
कभी देखो तो मौजों का तड़पना कैसा लगता है
ये दरिया इतना पानी पी के प्यासा कैसा लगता है
हम उस से थोड़ी दूरी पर हमेशा रुक से जाते हैं
न जाने उस से मिलने का इरादा कैसा लगता है
मैं धीरे धीरे उन का दुश्मन-ए-जाँ बनता जाता हूँ
वो आँखें कितनी क़ातिल हैं वो चेहरा कैसा लगता है
ज़वाल-ए-जिस्म को देखो तो कुछ एहसास हो इस का
बिखरता ज़र्रा ज़र्रा कोई सहरा कैसा लगता है
फ़लक पर उड़ते जाते बादलों को देखता हूँ मैं
हवा कहती है मुझ से ये तमाशा कैसा लगता है