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कभी दोस्ती के सितम देखते हैं / पुरुषोत्तम 'यक़ीन'

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कभी दोस्ती के सितम देखते हैं
कभी दुश्मनी के करम देखते हैं

कोई चहरा नूरे-मसर्रत से रोशन
किसी पर हज़ारों अलम देखते हैं

अगर सच कहा हम ने तुम रो पडोगे
न पूछों कि हम कितने गम देखते हैं

गरज़ उउ की देखी, मदद करना देखा
और अब टूटता हर भरम देखते हैं

ज़ुबाँ खोलता है यहां कौन देखें
हक़ीक़त में कितना है दम देखते हैं

उन्हें हर सफ़र में भटकना पडा है
जो नक्शा न नक्शे-क़दम देखते हैं

यूँ ही ताका-झाँकी तो आदत नहीं है
मगर इक नज़र कम से कम देखते हैं

थी ज़िंदादिली जिन की फ़ितरत में यारों !
'यक़ीन' उन की आँखों को नम देखते हैं