कभी धुआँ कभी गर्दो-ग़ुबार हो के चले / रमेश तन्हा
कभी धुआँ कभी गर्दो-ग़ुबार हो के चले
हम अपने आप से बे इख़्तियार हो के चले।
तिरी तलब में हम अपने हवास खो बैठे
इक आबजू थे मगर बे किनार हो के चले।
तलब के सारे मराहिल से वो गुज़र जाये
जुनूँ की राह से जो एक बार हो के चले।
हरेक बर्ग पे हम दास्तान लिख देंगे
कभी जो दोशे-हवा पर सवार हो के चले।
शजर से बिछड़े हुओं को न रास आयेगी
हवा-ए-खैर चमन से हज़ार हो के चले।
न कोई सम्त, न राहें, न मंज़िलें, न क़याम
जो खुद से हार गये, बे-महार हो के चले।
ये ज़िन्दगी भी कोई ज़िन्दगी हुई यारो
न फूल बन के बने, और न ख़ार हो के चले।
वो मोड़ था ही कुछ ऐसा कि उसके बाद सभी
संभल संभल के चले होशियार हो के चले।
मिरे ही नक़्शे-क़दम थे समय के सहरा में
जो रह-रवों के लिए रहगुज़ार हो के चले।
रुके हुए थे जो मुद्दत से एक नुक्ते पर
चले, तो एक नया शाहकार हो के चले।
खुद आने आप से मिलने की ये भी सूरत थी
हम अपनी ज़ात से अक्सर फरार हो के चले।
शफ़क़ का लम्स चुरा कर क़दम क़दम 'तन्हा'
मुहीब रात में हम रंगज़ार हो के चले।