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कभी न आने की क़समें हज़ार खाओगे / रवि सिन्हा

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कभी न आने की क़समें हज़ार खाओगे 
कोई मकाँ है मिरा दिल कि आ के आओगे

मुझे तो उम्र लगी है तुझे भुलाने में 
ये तुम पे था कि मुझे यूँ ही भूल जाओगे
 
बुझा के बैठ रहेगें चराग़ लम्हों के 
कहा था वक़्त की तारीकियों<ref>अन्धेरों (darkness)</ref> में आओगे

हक़ीक़तों की थकन नींद में उतारी है 
कोई तो ख़्वाब भी इस नींद में जगाओगे  

पियाद-गाँ<ref>पैदल (walkers)</ref> हैं सभी फ़ौज में तुम्हीं हो सवार 
बिना लड़े भी ज़फ़र-याब<ref>विजयी (victorious)</ref> ही कहाओगे  

सज़ा तो भीड़ ही देगी शहर की सड़कों पर 
कोई सुबूत मिरे जुर्म का तो लाओगे 

बजा<ref>ठीक (appropriate)</ref> कि डाल दिये बीज बर्क़ो<ref>बिजली (lightning)</ref>-बादल के    
कभी तो ख़ाक में तूफ़ान भी उठाओगे 

नदी से नाव के रिश्ते में कुछ तज़ाद<ref>विरोध (contradiction)</ref> तो है 
ख़ुदी बग़ैर तो दुनिया में डूब जाओगे 

किसी भी बात से वो बात तुम छुपा लेते 
रहे ख़मोश तो फिर बात क्या छुपाओगे 

शब्दार्थ
<references/>