भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कभी न होता, कभी न होगा / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी न होता, कभी न होगा मेरा-तेरा सुखद बिछोह।
तो भी नित मिलनेच्छा बढ़ती रहती, यह कैसा प्रिय मोह॥
नित्य मिलन-‌अनुभूति साथ ही, तदपि दीखता कभी बियोग।
नित्य मिलनमें अमिलन दिखता, अमिलनमें दिखता संयोग॥
रहती लगी प्रतीक्षा मधुर स्मृतियुत, बढ़ता रहता वेग।
बढ़ती असहिष्णुता उारोर, बढ़ता मनका संवेग॥
मिलन-विरहके इसी परम सुखमें रहता मन सदा विभोर।
अविरत चलता रहता यह नित शुचि प्रवाह अनन्तकी ओर॥