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कभी मेरे लम्हे सँवारा करो / मासूम शायर
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कभी मेरे लम्हे सँवारा करो
साथ मेरे भी वक़्त गुज़ारा करो
अशक़-ए-ग़म-ए-यार हैं मीठे बहुत
ये सागर कभी न खारा करो
उसके ख्वाबों से न जगाया करो
चाँद से न मुझको उतारा करो
प्यार आएगा राहों में फिर एकबार
मगर वो ख़ता न दोबारा करो
दर्द देने की जब जब भी हो आरज़ू
नाम ले के मुझे तुम पुकारा करो
इश्क़ में जीतने का हुनर सीख लो
वो जीता करें तुम हारा करो
करने लगे हैं साज़िशें लहर सी
इन किनारों से अब तो किनारा करो
उनसे हारो तो बात ये फिर ठीक है
अपनी किस्मत से न तुम हारा करो
सुकून न मिलेगा कहीं मंज़िलों तक
अब तो जैसे भी गुज़रे गुज़ारा करो
क़ीमत जान की तुम से ज़्यादा नहीं
कब तुम्हें चाहिए बस इशारा करो
हिज़्र ने भी सँवारा है मासूम को
उस की नज़र कभी तो उतारा करो