आजकल अस्त्र शस्त्रों के
जिम खुल गए हैं
पासीने की जगह उनके
रंध्रों से निकलता है धुआं बारूद का
दूर तक मारने की शक्ति
की होड है बाज़ार में
जन कल्याण का पैसा
लगा है दांव पर
अंतर्राष्ट्रीय दंगल की प्रतीक्षा है
दिग्विजय की लालसा ने
अंधा कर दिया है दिग्गजों को
इस बार मुर्दे नहीं
गरम राख़ परसी
जाएगी यमराज को।
वहशी हवाएँ ढूँढती फिरेंगी
कुओं में कन्दराओं में पहाड़ों में
प्रतिध्वनि उन चीख़ों उन कराहों की
जो दंगल की चपेट में गुम हो गईं।
प्रकाश जल कर काला हो जागया
कभी कोई खोजी आयगा
किसी नक्षत्र से
देख कर जल प्रवाह की
सूखी लकीरें इस धरा कि रेत पर,
कहेगा यहाँ कभी जीवन रहा होगा
हजारों साल पहिले॥