कभी यूँ भी होता / निधि सक्सेना
काश यूँ भी होता
कि तुम आकाश हो जाते...
छोर से छोर तक अन्तहीन
विस्तृत विशाल विराट...
उजालों के कंगूरों से सजे
सफ़ेद बादलों की कोख से झाँकते...
और तब मैं एक पंछी हो जाती
पँख फैला कर उड़ान भरती निर्बाध...
रश्मियों की फुनगियों पर फुदकती...
हवाओं में ठहरती टहलती बिचलती बिछलती...
स्वयं को खोती
खो जाती...
स्वयं में पाती
पा जाती...
जीती,जी उठती, जी जाती...
तुम अपनी विराटता में सहज
अपनी विराटता से भिज्ञ होकर भी अनभिज्ञ...
न स्वयं की अशेषता का आभास कराते
न मेरी शेषता ज़ाहिर करते...
न मुझे आँकते
न नापते...
मेरी अंजलि में क्षितिज भरते
मेरी पलकों पर सबेरा लिखते...
मेरे हृदय में हुलसते महकते बिखरते
विस्तृत विशाल विराट बन कर...
कभी यूँ भी होता
कि तुम आकाश हो जाते...