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कभी वो शोख़ मिरे दिल की अंजुमन तक आए/ ‘अना’ क़ासमी

कभी वो शोख़ मेरे दिल की अंजुमन तक आए
मेरे ख़्याल से गुज़रे मेरे सुख़न<ref>कवित्व</ref> तक आए

जो आफ़ताब थे ऐसा हुआ तेरे आगे
तमाम नूर समेटा तो इक किरन तक आए

कहे हैं लोग कि मेरी ग़ज़ल के पैकर<ref>साँचा</ref> से
कभी कभार तेरी ख़ुशबू-ए-बदन तक आए

जो तू नहीं तो बता क्या हुआ है रात गए
मेरी रगों में तेरे लम्स<ref>स्पर्श</ref> की चुभन तक आए

अब अश्क पोंछ ले जाकर कहो ये नरगिस<ref>घने जंगल में खिलने वाला फूल</ref> को
अगर तलाशे-नज़र है मेरे चमन तक आए

तमाम रिश्ते भुलाकर मैं काट लूँगा इन्हें
अगर ये हाथ कभी मादरे-वतन तक आए

जो इश्क़ रूठ के बैठे तो इस तरह हो 'अना'
कि हुस्न आए मनाने तो सौ जतन तक आए

शब्दार्थ
<references/>