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कभी सैय्याद के जो खौफ से बाहर नहीं आया / प्रेमचंद सहजवाला
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कभी सैय्याद के जो खौफ से बाहर नहीं आया
परिंदा कोई भी ऐसा फलक छू कर नहीं आया
अदालत में गए ईश्वर पे हम सब फैसला सुनने
मगर अफ़सोस सब आए फकत ईश्वर नहीं आया
मेरी मजबूर बस्ती में सुबह सूरज उगा तो था
वो अपनी मुट्ठियों में रौशनी ले कर नहीं आया
मकानों की कतारों में गए हम दूर तक साथी
चले भी थे मुसलसल पर तुम्हारा घर नहीं आया
गए शागिर्द सब पढ़ने मदरसा बंद था लेकिन
पढ़ाने कम पगारों पर कोई टीचर नहीं आया
बहुत आए हमारे गांव में सपनों के ताजिर पर
गरीबी दूर करने वाला कारीगर नहीं आया
करोड़ों देवताओं के करोड़ों रूप हैं लोगो
बदल दे जिंदगानी जो वो मुरलीधर नहीं आया