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कभी - कभी मनुष्य मरते-मरते भी थक जाता है / मुइसेर येनिया
Kavita Kosh से
कभी-कभी मनुष्य मरते-मरते भी थक जाता है
कभी-कभी वह उस मुल्क की तरह हो जाता है
जिसे सबने छोड़ दिया हो
उस मुल्क की तरह
जिसे छोड़ दिया हो सबने
एक स्त्री भी छूट जाती है
दुःख के समुद्र के भीतर एक मछली
जैसे ही टकराती है किनारे से
समुद्र उछलने लगता है
ताकि कोई देख न सके मेरे ज़ख्म
मैं उन पर जमा लेती हूँ पपड़ी
यदि मैं नहीं होती, दुःख भी नहीं होते ।