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कभी / कुँअर रवीन्द्र
Kavita Kosh से
चट्टानों के बीच से बूँदों का टपकना
साबित करता है
कभी तो बर्फ़ पिघली होगी
रेत में निशान
अब भी बाक़ी हैं
कभी तो इस नदी में
पानी बहा होगा
इन दरख़्तों में
कभी कोंपलें भी फूटती थीं
जो अब ठूँठ का बस
पर्यायवाची रह गया है
परिन्दे भी ठूँठों पर
घरौंदे नहीं बनाते
ठूँठों के शिखर पर
सिर्फ चील या बाज़ ही बसा करते हैं .....