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कभी / स्वप्निल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
कभी उन्हें इन्ही हथेलियों पर
उठा लेता था
लेकिन चीज़ें भारी हो गई हैं
उनके भीतर मात्रा और भार का
अनुशासन नही रह गया है
जो शब्द होठों से उठा लिए जाते थे
उनके लिए तराजू की ज़रूरत
होने लगी है
ये आँखें कभी दर्पण थी
इनसे दिख जाते थे दृश्य
अब अपना समय नही दिखाई
देता
देखते-देखते कितना कुछ
बदल गया है।
नापना-तौलना मुश्किल
हो गया है
उठाईगीरों ने चीज़ों की सही जगह
बदल दी है