भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कमज़ोर कविता / बोधिसत्व

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
वह एक कमज़ोर कविता थी
कवि उसे छिपाता फिरता था
कुछ बहुत कमज़ोर विचार थे उसमें
कहने के लिए कुछ थोड़े शब्द थे घिसे-पिटे
न अलंकार था न छंद न समास
नीरस-सी जहाँ-तहाँ रूखे भाव उफनाए से दिखते थे उसमें ।

उस कविता में न थे गंभीर तत्व
ऐसे ही थी जैसे बेस्वाद पापड़-चटनी-अचार ।
वह बहुत कमज़ोर कविता थी
जैसे असुंदर बीमार बेटी
जैसे कुरूप-कर्कशा पत्नी
जैसे अपाहिज औलाद
जैसे मंद-बुद्धि बैठोल पति
जैसे धूल-धूसर जर्जर घर
जैसे फूटी ढिबरी
जैसे खेत ऊसर-बंजर अनुर्वर
उस कमज़ोर कविता में कोई लालित्य, कोई तरलता सुघड़ता न थी

उस कमजोर कविता से अर्थ छटाएँ लुप्त थीं
उस कमज़ोर कविता में ऐसा कुछ न था
जिसके लिए उसे कहीं सभा में पढ़ा जाता
किसी स्वर्ण-पट्टिका पर अंकित होने की बात दूर रही
कहीं कोई और उद्धृत करता ऐसा भी कुछ न था उसमें
वह अकाल में गिरे पत्ते की तरह थी
वह यौवन में झड़े बाल की तरह थी
वह चिट्ठी निकाल लिए जाने के बाद खुक्ख लिफाफे की तरह थी
अक्सर कवि उसे लिख कर पछताते थे
बाकी सुन्दर कविताओं के बीच उसका नाम तक लेते लजाते थे ।

उसे कभी कहीं सुना-पढ़ा नहीं गया
उसे कभी सम्राटों के माथे जड़ा-मढ़ा नहीं गया
वह निर्बल कमज़ोर कविता
बीमार माँ की तरह थी
ग़रीब भाई की तरह थी
विक्षिप्त बहन की तरह थी
निपत्र-खंखड़ पिता की तरह थी
टूटी उखड़ी सड़क की तरह थी
सूखी गंदी नदी की तरह थी
अमृत और रस वर्षा का कोई सोता नहीं फूटता था उसमें
सुगंधि और आकर्षण से हीन
किसी का सहारा बनने
किसी जो जीवन का संदेश सुनाने की शक्ति उसमें न थी ।

वह इतनी कमज़ोर थी कि उसमें
कालजयी होने
अमरता के अमिट शिलालेख पर खुदवाए जाने की कोई संभावना न थी
उसका नाम भी ठीक से तय नहीं था
वह कमज़ोर थी
और बेहद कमज़ोर थकी-सी कुछ आवाज़ें थीं उसमें
बेहद भोथरी और विपन्न स्थितियाँ वहाँ अंकित थीं
कमज़ोर आदमी और मरियल पौधे की तरह
उसे अकाल मरना झुराना था
कमज़ोर विचार की तरह
उसे ऐसे ही मिट जाना था
कमज़ोर नाते और संबंध की तरह
उसे चुपचाप छूट ही जाना था
उसकी याद आते ही कवि को अपने रचयिता होने पर संशय होता था

उसके पढ़े जाने पर कैसा छा जाएगा सन्नाटा
या तो सब चुप रहेंगे देंगे गालियाँ
कोई न बजाएगा तालियाँ
सोच कर कवि ने उसका नाम कभी न लिया
कवि ने एक तरह से ठीक ही किया
जो कमज़ोर है
उसका कहाँ ठाँव-ठौर है
गाँव-गली और राजधानी में
सर्वत्र ही शक्तिशाली के शीश मौर है
कमज़ोर को
हर जगह थू-थू है धिक्कार है
शक्तिशाली की हर जगह जय-जयकार है

सच ही है
अकारथ था अकारथ है कमज़ोर का होना
अब छोड़ो भाई उस कमज़ोर कविता को
उसका क्या रोना ।