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कमज़ोर क्षण की औरतें / राजूरंजन प्रसाद

Kavita Kosh से
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कमज़ोर नहीं थी स्त्री
पैदा हुई जब
इस बड़ी धरती पर
बढ़े थे उनके भी कदम
अनंत दूरी के लिए
खानाबदोश मर्दों व नये
पालतू बने पशुओं के साथ
डसी ने खोजी
घर की देहरी पर खड़ी
फसलें लहलहातीं अनगिनत
सूप से फटकने और
बिछने के क्रम में
छितरा गई होंगी इधर-उधर
बीज-रूप में।

ठीक फ़सलों की तरह
आई होगी बाढ़ उनकी भी
उठे होंगे उनके भी कदम
लांघने को पहाड़
हिमालय जैसे
नदियां उसने भी पार की होंगी
बनाये उसने भी रास्ते
चलकर पहुंची जिनसे
एशिया और यूरोप के मुल्कों में
बचे रह गये जहां
स्मृतियों में जंगली शेर और चीते।

कमज़ोर नहीं थी स्त्री
पार करने को नदी
जब बनाई उसने डोंगी
बांस की खपचियों से
और कूद गई उसमें
कमज़ोर नहीं थी
निकल आई बाहर
लांघती दोनों किनारों को
जवान नदी के
एक ही सांस में
नदी के किनारे की
देख तमपूर्ण फैली हरियाली
रुक गई
मिट्टी के लोंदे को सान सान
बांस-फूस से घेरी
दो गज जमीन और
कही पहली बार
उसका है धरती का टुकड़ा
बसाया अपना सबसे छोटा घर
मनुष्यों के सबसे छोटे ग्रह पर
मर्दों ने किया प्रवेश
बाहर से
हमलावर की तरह
शुरू होती है यहीं से
पराधीनता इतिहास की
स्त्रियों के सजाए घर में
किया मर्दों ने प्रवेश
जब बाहर से
दिया अनचाहा गर्भ औरतों को
कमज़ोर हुई तभी
शायद
सबसे कमज़ोर
हमारी स्त्रियां।
(20.1.97)