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कमरे का एकान्त / रवीन्द्र भारती

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डेरा बदला जा रहा है
टलना, खूँटियों से उतारे जा रहे हैं कपड़े ।
उन कुरतों से आ रही है पसीने की गन्ध जो है ही नहीं वहाँ
एक बार उठती है मेरी तरफ़ घर भर की आँखें
फिर लग जाती हैं काम में ।

समेटे जा रहे हैं बिखरे सामान
बाँधे जा रहे हैं बिस्तर
अपने-अपने पाताल में रखे सामान को चुपके से निकाल
स्त्रियाँ रख रही हैं गठरी, मोटरी में ।

कुछ सामान मिलते ही होने लगता है शोर
कि देखो यहां दबी-पड़ी थी
कितना हलकान था घर उसके लिए
काठ की मथनी भी मिल गई जो परछने के समय आती है बाहर
जब कोई कनिया चौखट के अन्दर रखती है गोड़ ।
लो, संभाल कर रखो इसे
जाने वाले सामान के साथ ।

नहीं पता, कौन-कौन जाने वाले सामान के साथ गया
कौन-कौन नहीं
उन दोनों में मेरा कोई सामान नहीं है ।
सारा माल-असबाब जाने के बाद
सबसे अन्त में मेरी पगध्वनियों को पहचानने वाले कमरे का एकान्त
गाड़ी में आकर बैठ गया
मेरी बगल में चुपचाप ।