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कमरे का धुआँ / नचिकेता
Kavita Kosh से
सोचिए
किस दौर में शामिल हुए
खिड़कियाँ खोलीं कि
आएगी हवा
छँटेगा इस बंद
कमरे का धुआँ
क्या खुलेपन से
मगर हासिल हुए
पच्छिमी गोलार्ध से
आकर सुबह
खोल देगी
हर अंधेरे की गिरह
मान यह
संघर्ष से गाफ़िल हुए
क्या न ख़ुशबू
बाँटने के नाम पर
है हरापन चूसने का
यह हुनर
जो बने रहबर
वही क़ातिल हुए।