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कमरे में अँधेरा होते ही / चन्द्रकान्त देवताले


आकृतियों और झूलती हुई परछाइयों से
हाथ धो बैठा कमरा अँधेरा होते ही
तब मैं क्या देख रहा था जिसके बाद
एकदम बन्द हुआ दिखना उसका

अब पिंजड़े में टहलता सुग्गा
कर रहा हड़कम्प चिड़िया फूली हुई
किंतु दुबकी ख़ामोश होगी वहीं उस कोने में,
तब मैं शायद तुम्हारी ठुड्डी को कुछ
कम-सा देखते हुए निश्चय ही सोच रहा था ज़्यादह
तुम कब लगती हो भोंदू
जैसे हर एक शख्स ख़ास ढंग में
या अपने किसी सही वक़्त में
हो जाता कद्दू की तरह

तभी खनकी चूड़ियाँ अँधेरे में
कितने हल्के से उठाया या हिलाया होगा
हाथ, पता नहीं कौन-सा किसने

मेरा पाँव टकराया मेज़ की टाँग से
उस पर कितनी चीज़ें हैं कौन-कौन सी
क्योंकि तुम्हारी होने से मेज़ उस पर
मेरी नहीं हैं चीज़ें...

तुम्हारे कमरे में होने से
अँधेरे के भीतर एक और अँधेरा है
जो किसी और का होने से मेरा नहीं है
अपने अँधेरे में होता कितना आसान
ढूँढ पाना चीज़ों को
घूम आना चौके तक पीकर मटके से
ठण्डा पानी अँधेरे को दोस्त की तरह थपथपाना...

यहाँ औरों की उपस्थिति से
कितना गाढ़ा हो गया है अँधेरा बेजान
जैसे गुम हो जाने के बाद वायलिन
खाली पड़ा हो नंगा विराट शीशम का टेबल...

और हाथ मेरे दोनों हो गए जाम
नाहक हो गयी आँखों को आज़ादी
कुत्ता तुम्हारा शिबू गुर्रा रहा
न जाने किधर
सब चुपचाप कब तक
बाहर मूसलाधार पानी
अँधेरे में...