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कमरे में कोई ऐश-ट्रे भी नहीं... / प्रतिभा कटियार

अमृता और मरीना की याद में

वो उतरती शाम का धुँधलका था
शायद गोधूलि की बेला

बैलों की गले में बँधी घँटियों की रिद्म
उनके लौटते हुए सुस्त क़दम और
दिन भर की थकान उतारने को आतुर सूरज
कितने बेफ़िक्र से तुम लेटे हुए
उतरती शाम की ख़ामोशी को
पी रहे थे
जी रहे थे ।

तुम शाम देख रहे थे
मैं तुम्हें...
तुम्हारी सिगरेट के मुहाने पर
राख़ जमा हो चुकी थी ।
कभी भी झड़ सकती थी वो
बैलों की घंटियों की आवाज़ से भी
हवाओं में व्याप्त सुर लहरियों से भी
मैं उस राख़ को एकटक देख रही थी

तुम बेफ़िक्र थे इससे कि
वो जो राख़ है सिगरेट के मुहाने पर
असल में मैं ही हूँ
तुम्हारे प्यार की आग में जली-बुझी-सी

कमरे में कोई ऐश-ट्रे भी नहीं...