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कमाल-ए-ज़ब्त को खुद भी तो आज़माऊंगी / परवीन शाकिर

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कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
मैं अपने हाथ से उस की दुल्हन सजाऊँगी

सुपुर्द कर के उसे चांदनी के हाथों
मैं अपने घर के अंधेरों को लौट आऊँगी

बदन के कर्ब को वो भी समझ न पायेगा
मैं दिल में रोऊँगी आँखों में मुस्कुराऊँगी

वो क्या गया के रफ़ाक़त के सारे लुत्फ़ गये
मैं किस से रूठ सकूँगी किसे मनाऊँगी

वो इक रिश्ता-ए-बेनाम भी नहीं लेकिन
मैं अब भी उस के इशारों पे सर झुकाऊँगी

बिछा दिया था गुलाबों के साथ अपना वजूद
वो सो के उठे तो ख़्वाबों की राख उठाऊँगी

अब उस का फ़न तो किसी और से मनसूब<ref>जुडा हुआ</ref> हुआ
मैं किस की नज़्म अकेले में गुनगुनाऊँगी

जवज़<ref>कारण</ref> ढूंढ रहा था नई मुहब्बत का
वो कह रहा था के मैं उस को भूल जाऊँगी

सम'अतों में घने जंगलों की साँसें हैं
मैं अब कभी तेरी आवाज़ सुन न पाऊँगी

शब्दार्थ
<references/>
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