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कमाल-ए-बे-ख़बरी को ख़बर / ग़ुलाम रब्बानी 'ताबाँ'
Kavita Kosh से
कमाल-ए-बे-ख़बरी को ख़बर समझते हैं
तेरी निगाह को जो मोतबर समझते हैं
फ़रोग़-ए-तूर की यूँ तो हज़ार तावीलें
हम इक चराग़-ए-सर-ए-रह-गुज़र समझते हैं
लब-ए-निगार को ज़हमत न दो ख़ुदा के लिए
हम अहल-ए-शौक़ ज़बान-ए-नज़र समझते हैं
जनाब-ए-शैख़ समझते हैं ख़ूब रिंदों को
जनाब-ए-शौख़ को हम भी मगर समझते हैं
वो ख़ाक समझेंगे राज़-ए-गुल-ओ-समन 'ताबाँ'
जो रंग ओ बू को फ़रेब-ए-नज़र समझते हैं