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कमाल की औरतें ३५ / शैलजा पाठक
Kavita Kosh से
देह की माटी पर
उगेंगे हरे पौधे
हवाओं की सीटियों से
कंपकपाएंगे नए पत्ते
थरथराती एक शाम
उकड़ू बैठेगी छांव तले
तुम धूप बन कर आना
मैं पेड़ की सबसे ऊंची फुनगी से गिरूंगी
बूंद बनकर
तुम्हारी हथेलियों में
तुम फिर माटी कर देना मुझे...।