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कमाल की औरतें ६ / शैलजा पाठक

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ये औरतें
अपनी खराब तबीयत को टालती हैं
जितना हो सकता है परेशानियां पालती हैं
फिर झल्लाकर उसे महीन छलनी से छानती हैं
छन जाती है उतने से ही काम निपटाती हैं

कुछ स्थूल चीजों पर नहीं जाता इनका Šध्यान
जैसे अपना मन अपने सपने
अपनी बातें अपने दुख-दर्द
ये इन सबको ƒघर के कूड़े-कचरे के साथ
बाहर वाले ƒघूरे पर डाल आती हैं

ये कम ही बची रहती हैं
पर काम पूरे करती हैं
औरतें
अपने जीवन के सबसे सु‹दर समय में
उठाती हैं घर की जिम्मेवारी
जनती हैं बच्चे...करती हैं परवरिश
ये बीत गई उम्र की औरतें
रीत जाती हैं
ƒघर की ƒघर में

इनकी आंखों के इर्द-गिर्द धूप जमा होती है
पर ये देखने लगती हैं
पहले से कम
ये नहीं भूलतीं
अपनी पहली कविता की डायरी
400 मीटर की बाधा दौड़ की ट्रॉफी
ये नहीं भूलतीं अपनी गुडिय़ा
अपना खेल
अपने बच्चों के साथ अपने बचपन को दुहराती हैं
अपने गुडिय़ा की हंसी देख
अपने आप को बिसार जाती हैं

आग, हवा, पानी, मिट्टी से बनी औरतें
जितना बचती हैं
उतने से ही रचती हैं इतिहास

अपने बॉस के फिरंगी रंग
औरतों के सामने जब शर्मि‹दा होती हो तुम
'मैं बस हाउस वाइफ हूं'
उस वक्त मैं चीख कर बताना चाहती हूं-
कि तुम सबकी संतुष्ट डकार के लिए
रसोई में कितना मिटी हूं मैं
एक पैर पर खड़ी
जुटाती रही छप्पन रंग
कि तुम्हारी तरक्की के सपनों को मिले
नया आकाश!

दर्द की पट्टियां बदलती औरतें
ƒघूमती धरती पर
जम कर खड़ी हैं
तुम्हारी दीवारों में ƒघुली हैं
गारे मिट्टी की तरह
तुम्हारे बिस्तर पर तुम्हारी चाह बनकर

और तुम कहते हो-
कमाल की औरतें हैं
दिन भर ƒघर में पड़ी रहती हैं...!

खाती हैं मोटाती हैं
शाम को बेहोश पसर जाती हैं
ना कहीं आती हैं ना जाती हैं।