कमाल की औरतें ८ / शैलजा पाठक
उसकी आंखों की गुलाबी चादर पर खुली किताब सी मैं
दूर शहर पर बिछोह की पटरियां बिछी होती
एक अकेली रात धधक जाती
उसकी बंद पलकों के पीछे
मैं हथेलियां रख देती...
तुम बहुत मुश्किल समय में खोज रही हो प्रेम
अपनी परेशान ज़िन्दगी की चुभन सहती
कैसे कर लेती हो नरम फूलों की बात
कैसे बचा हुआ है अब तक
तुम्हारी आंखों का नीला आकाश
एक कुएं के खालीपन में कैसे डुबा लाती हो
भर बाल्टी उम्मीद का जल
उसके हाथ के उभरे छाले
उसके मन पर उभर आते
वो घुटनों में सर धरे सुनाती सलोनी कहानियां
जिनके पात्र बनना चाहती थी कभी
अच्छा बताओ ना
कुम्हार की लड़की इतनी सुन्दर
कि ब्याह ले गया नगर का राजा
मिट्टी की चाक पर बर्तनों को घुमाने वाले हाथ
रेशमी महल में कैद हो गये
और पता है
लकड़हारे के पेड़ काटते ही बेला चमेला बनी लड़की
चीखती सी आकाश का तारा बन गई
वो मुझे प्यार सीखाने आई थी
मैं उसकी आंख की दहकती आग से डरता था
तुम्हारे सवालों का कोई जवाब नहीं...
तुम्हें समझने के लिए
नदी को समझना होगा
झरने संग उतरना होगा
हवा की बांह थामे
बितानी होंगी कई रातें
रंगों के गीत गाना सीख लूं
तब शायद या शायद तब भी नहीं...
कभी नहीं समझ सकता
ओस सी लड़की
आग के शहर का हिस्सा हो गई
सपनों के साथ खारे समंदर में खो गई
बूंद भर आह
मोती बन गई
बाज़ार में खो गई...।