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कमीज़ के नीचे / सुधांशु उपाध्याय
Kavita Kosh से
कितना झूठ जिएँ हम हँसकर
कितना रोएँ छीजें
तार-तार बनियान है
उजली कमीज़ के नीचे
मन की राधा नाच न पाई
कभी किनारे नाव न आई
सन्नाटे में डूबी खाई
केवल सूखी बदली छाई
बच्चों को कैसे समझाएँ
सूखी बेल कहाँ तक सींचें
धुँधली पड़ती हुई नज़र है
चुप्पी पीता हुआ शहर है
बन्द खिड़कियोंवाला घर है
दीवारों पर चस्पाँ डर है
दूर क्षितिज पर बूढ़ा सूरज
काली रेखा खींचे
खड़े रहे हम पंजों पर ही
ख़ुद को कसे शिकंजों पर ही
कसते फिकरे-तंजों पर ही
बिछे रहे शतरंजों पर ही
जले हुए फूलों को लेकर
फूलों के बुन रहे गलीचे