कमीज़ / अमरजीत कौंके
तुम्हारी कमीज़
अभी भी है मेरे अंग-संग
कितने बरस बीत गए
कितनी धूप, कितने जाड़े
इस के बदन ने सह लिए
कितनी आँधियाँ
तूफान कितने
इसके रेशों के साथ
घिसर कर गुज़र गए
कितनी बहारें
कितने पतझड़
दिन, महीने, साल कितने
छोटे-बड़े कितने हादसे
तुम्हारी इस कमीज़ ने
मेरे साथ घटते देखे हैं
तुम्हारी इस कमीज़ ने
मेरे जिस्म की गर्मी
मेरे जिस्म की ठंडक देखी
तुम्हारी इस कमीज़ ने
कितने जिस्मों की तपन
महसूस की है
बरस बीत गए
तुम्हारे जाने के बाद
अभी भी यह कमीज़
कितनी नई और ताज़ा है
तुम्हारी स्मृति की तरह
अभी भी इस के बदन से
तुम्हारे जिस्म की खुशबू आती है
तुम दूर
बहुत दूर हो मुझसे
इस पल
मेरी किसी भी पहुँच से दूर
मेरे किसी भी सन्देश से परे
पर आज भी जब
तुम्हारी कमीज़ पहनता हूँ
इस के रेशों से
अभी भी तुम्हारी खुशबू झरती है
अभी भी तुम्हारे जिस्म की तपन
महसूस होती है ।
मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा