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कम-अज-कम रंग / लीलाधर मंडलोई

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पहुंचूंगा पार करता हुआ यह परिवेश
उग आई होंगी पेड़-पौधों पर रंग-बिरंगी कोंपलें

कुछ और बढ़ गया होगा जरूर
मां के चेहरे पर मौसम का अदेखा बुढ़ापा

बाबा के बाद से ही रंगों से दूर भागती है मां
खूब पसंद थे बाबा को रंग
मां पहनती थी रंग-बिरंगी साडियां बरहमेस

इन्‍हीं दिनों कहता है हर साल मन
खरीदूं कम-अज-कम रंग-बिरंगी साड़ी एक
बाबा जबकि नहीं लौट सकते
चाहता हूं लौटें कम-अज-कम रंग

रंगों से दूर भागती मां के लिए
मैं खरीदूंगा रंग-बिरंगी साड़ी कि
इस बरस पहुंचूं जब घर

मां थोड़ी-सी उमगे, थोड़ी सी हरियाये