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कम-फ़हम हैं तो कम हैं परेशानियों में हम / मुस्तफ़ा ख़ान 'शेफ़्ता'

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कम-फ़हम हैं तो कम हैं परेशानियों में हम
दानाइयों से अच्छे हैं नादानियों में हम

शायद रक़ीब डूब मरें बहर-ए-शर्म में
डूबंेगे मौज-ए-अश्क की तुग़़्यानियों में हम

मोहताज-ए-फ़ैज़-ए-नामिया क्यूँ होते इस क़दर
करते जो सोच कुछ जिगर-अफ़शानियों में हम

पहुँचाई हम ने मश्क़ यहाँ तक के हो गए
उस्ताद-ए-अंदलीब नवा-ख़्वानियों में हम

गै़रों के साथ आप भी उठते है बज़्म से
लो मेज़बान बन गए मेहमानियों में हम

जिन जिन के तू-मज़ार से गुज़रा वो जी उठे
बाक़ी रहे हैं एक तेरे फ़ानियों में हम

गुस्ताख़ियों से गै़र की उन को मलाल है
मशहूर होते काश अदब-दानियों में हम

देखा जो जु़ल्फ़-ए-यार को तस्कीन हो गई
यक-चंद मुज़्तरिब थे परेशानियों में हम

आँखों से यूँ इशारा-ए-दुश्मन न देखते
होते न इस क़दर जो निगह-बानियों में हम

जो जान खो के पाएँ तो फ़ौज़-ए-अज़ीम है
वो चीज़ ढूँढते हैं तन-आसानियों में हम

पीर-ए-मुग़ाँ के फै़ज़-ए-तवज्जोह से ‘शेफ़्ता’
अक्शर शराब पीते हैं रूहानियों में हम