करतब सूरज-चंदा के / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
मिलता चाँद चवन्नी में है,
और अठन्नी में सूरज माँ।
माँ यह बिलकुल सत्य बात है।
नहीं कहीं इसमें अचरज माँ।
कल बांदकपुर के मेले में,
मैंने एक जलेबी खाई।
बिलकुल चांद सरीखी थी वह,
एक चवन्नी में ही आई।
खाने में तो मजा आ गया,
कितना आया मत पूछो माँ।
और इमरती गोल गोल माँ,
सूरज जैसी सुर्ख लाल थी।
अहा स्वाद में री प्यारी माँ,
कितनी अदभुत क्या कमाल थी।
एक अठन्नी भूली बिसरी,
सच में थी उसकी कीमत माँ।
किंतु चवन्नी और अठन्नी,
अब तो सपनों की बातें हैं।
पर सूरज चंदा से अब भी,
होती मुफ्त मुलाकातें हैं।
कितने लोक लुभावन होते,
इन दोनों के हैं करतब माँ।
जब आती है पूरन मासी,
सोचा करता क्या क्या कर लूँ।
किसी बड़े बरतन को लाकर,
स्वच्छ चांदनी उसमें भर लूँ।
किंतु हठीला चांद हुआ ना,
कहीं कभी इस पर सहमत माँ।
सूरज ने भी दिन भर तपकर,
ढेर धरा पर स्वर्ण बिखेरा।
किंतु शाम को जाते जाते,
खुद लूटा बन गया लुटेरा।
इस युग की तो बात निराली,
नहीं बचा है जग में सच माँ।