करता रहा अता मुझे हरजाई कुछ न कुछ
अंदोह दर्द ग़म कभी तनहाई कुछ न कुछ
बचकर चला मैं लाख ज़माने की भीड़ से
आती रही है सर मेरे रुसवाई कुछ न कुछ
बस थी ज़रा-सी बात मगर ज़िद पर वह रहा
बढ़ती रही यूँ बीच में फिर खाई कुछ न कुछ
बेशक बचा के हम चले दामन चराग़ से
लेकिन हमारे साथ थीं परछाई कुछ न कुछ
ऐसा नहीं है ज़ख़्म फ़क़त आपको मिले
हमने भी दिल पर चोट सदा खाई कुछ न कुछ
रुक जाएगा जो इश्क़ का जल दिल की झील में
जमती रहेगी देखना फिर काई कुछ न कुछ
ख्वाहिश अगर है आपका मेयार हो बुलंद
किरदार में भी लाइये गहराई कुछ न कुछ