भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
करते हैं खत्म गम का फ़साना यहाँ से हम / नज़ीर बनारसी
Kavita Kosh से
करते है खत्म गम का फसाना यहाँ से हम
सुन भी सको तो कह न सकेंगे जवाँ से हम
दोनों तरफ है मुहरे खामोशी लगी हुई
कुछ बदगुमाँ से वो हैं तो कुछ बदगुमाँ से हम
दुनिया है इक पड़ाव मुसाफिर के वास्ते
इक रात साँस ले के चलेंगे यहाँ से हम
ऐ जिन्दगी यहाँ भी न आराम मिल सका
फिर ले के चल वहीं पे चले थे जहाँ से हम
आवाज गुम है मस्जिदों-मंदिर के शोर में
अब सोचते हैं उनको पुकारें कहाँ से हम
पीकर जरा नसीब की मेराज <ref>बुलन्दी</ref> देखिए
लाये हैं अपने शहर की ऊँची दुकाँ से हम
है आये दिन ’नजीर’ वफा <ref>निष्ठा</ref> का मुतालबा <ref>माँग</ref>
तंग आ गए हैं रोज के इस इम्तिहाँ से हम
शब्दार्थ
<references/>