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करवा-चौथ का व्रत रखती एक औरत / अनिल गंगल

अहंकार से तनी रीढ़ का सामना करती
एक मार खाई औरत रखती है करवा-चौथ का व्रत
लाल आँखों और तनी हुई मूछों के अन्धकार में
एक गाली खाती औरत करती है करवा....
कहीं किसी भी खली जगह में जैसे-तैसे अंटती
अपनी सही-सही जगह न खोज पाई एक अपमानित औरत
रखती है करवा...

जोड़-जोड़ टूटती पोर-पोर थकी
जनम-जनम से भूखी रही आई एक औरत
तीन वक्त के खाने से अघाए एक भरे पेट वाले पुरुष के लिए
रखती है व्रत...

व्रत करती औरत
निर्जला रह चाँद के दिखने की प्रतीक्षा करती है

दुर्दिनों से गुजरती औरत विश्वाश करती है
कि विश्वाश के सहारे फतह किये जा सकते हैं किले
और तीनों भुवन
हांफती-कराहती औरत करती है विश्वाश
कि सिर्फ वही है जिसके व्रत से नहीं मंडरायेंगी दुरात्मएं
उसके सुहाग के आस-पास भी
व्रत रखती एक औरत यम के हाथों से
एक पुरुष को छुड़ा लाने का रचती है मिथक
और खुद एक गाथा में बदल जाती है।

सारा-सारा दिन निर्जला रहने के बावजूद
सुर्खरू आँखों की ललामी नहीं होती कम
तनी हुई मूछों का कसाव जरा भी नहीं पड़ता ढीला
सदियों से अकड़ आई रीढ़ झुकाती नहीं जरा भी
सहस्त्र पीढ़ियों के अपमान के ठूंठ से
उगती नहीं एक भी हरी कोंपल

सिर्फ उस रात ही नहीं
ताउम्र दिखता नहीं औरत को चाँद