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कराहता कनॉट प्लेस / अर्पण कुमार

Kavita Kosh से
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कनॉट प्लेस भीग रहा था
फ़रवरी के दूसरे सप्ताह की रिमझिम में
उसके गलियारे गमक रहे थे
बारिश में अधभीगे प्रेमी युगलो की
पारस्परिक नशीली चुहलबाज़ी से
पूरा बाज़ार महमह कर रहा था

सड़कों पर
हाथ में हाथ लिए प्रेमी युगल
एक ब्लॉक से दूसरे ब्लॉक तक
दौड़ते तो कभी क़दम-ताल करते
आ-जा रहे थे
वैलेण्टाइन डे के दिन
कुछ अधिक धुला-धुला कनॉट प्लेस
अपनी ऐसी क़िस्मत
और अधगीले-अधसूखे प्यार के
जगह-जगह लगी रँगीन जमघटों पर
इतराता चला जा रहा था

रात के दस बज रहे थे
सड़कों पर लैम्प-पोस्ट और दुकानों से आती
रोशनी की छरहरी परछाइयाँ
कनॉट प्लेस की नसों में पैवस्त हो रही थीं
सुगन्धित गलियारों में चहलकदमी करते
हर उम्र की युवा धड़कनों को

एक ख़ास से नशे में डुबो रही थी

नवयुवतियों की कजरारी आँखों में
प्यार के कई सुनहले सपने तैर रहे थे
जो अकेले तो कहीं समूह में
अपने-अपने आशिकों की किश्तियों में सवार थीं
मुहब्बत के अपने-अपने दरिया को पार करने
आधे सच्चे, आधे झूठे वायदों को ढोते शब्द
हल्की-फुल्की फुसफुसाहट के साथ
एक दूसरे के कन्धे थपथपा रहे थे
बारिश और भाषा में
कहीं कोई मूक प्रतियोगिता चल रही थी
कौन कितने धीमे से
मानव मन को गीला कर सकता है !
फुहारों में भीगती लड़कियों की आँखों का काजल
कुछ ज़्यादा फैल गया था
उनकी आँखें कुछ अधिक बड़ी दिख रही थीं
मानो इन ख़ूबसूरत पलों के पूरे उपवन को
वे स्वयं में समेट लेना चाह रही हों

पानी में गीले हुए युवतियों के बाल
उनके सिर से चिपककर
दिनभर के मुरझाए उनके चेहरों को
तरोताज़ा करने का प्रयत्न कर रहे थे
घुटनों से ऊपर जँघा तक
रोम-रहित, गीले, माँसल,चुस्त,
स्वस्थ, धुले-धुले कमनीय पैर
कनॉट प्लेस की बूढ़ी दीवारों के ईमान को
गोया भटका रहे थे
कनॉट प्लेस की दीवारें तरल हो आई थीं

घड़ी की सुई
अपने हिसाब से घूमती चली जा रही थी
रात गहराने लगी थी
वैलेण्टाइन डे पर एक दूसरे को फूल देते
प्रेमी-युगल
एक दूसरे से गले मिल
एक दूसरे को अलविदा कह रहे थे
कुछ अपने घरों की ओर
तो कुछ रेस्टोरेण्ट की ओर बढ़ने लगे थे
दिल्ली मेट्रो में दिल्ली की रँगीनी चढ़ आई थी
आसपास के रेस्टोरेण्ट कुछ अधिक युवा हो आए थे
उस रात

प्यार का नशा चारों ओर तारी था
सड़कें अलसाई थीं, ट्रैफिक सुस्त था
ब्रिटिश साम्राज्यवाद के दिनों की सख़्त दीवारें
कभी कुछ पलों के लिए अतीत में चली जातीं
आज़ाद और जश्न मनाते इन भारतीयों के
पूर्वज़ों ने ऐसे स्वतन्त्र-दिवसों के लिए
अपने पैरों में बेड़ियाँ बन्धवाईं...
अपनी आँखें मलतीं सहसा
वे पुनः वर्तमान में आ जातीं
जहाँ, अभी भी बहुतेरे सताए जा रहे थे
अभी भी कुछ लोग
क्षण भर की अपनी भूख को मिटाने के लिए
कोई भी हद पार कर सकते थे

लड़की की जिस कराह से
रातभर अपना सिर धुनता रहा कनॉट प्लेस

अगली सुबह का अख़बार रक्तरँजित था
वहाँ हुए उस पाशविक कृत्य से
नशे में गुमराह हुई एक लड़की
सामूहिक बलात्कार का शिकार हुई थी

कनॉट प्लेस
उस लड़की के लिए लोगों से मदद माँगता रहा,
चिल्लाता रहा
मगर गूँगी दीवारों की चीख़
लौट-लौट कर उसी के पास आती रही
मदद को कोई हाथ आगे नहीं आया

मनुष्यों के पल-पल बदलते रूपों को
कनॉट प्लेस समझ नही पाता
उनकी यान्त्रिक भीड़ में वह कहीं अकुलाने लगता है
आह ! कि पन्द्रह फरवरी की तेज़ धूप में
चौदह फरवरी की बारिश का
अब कोई नामोनिशान नहीं था ।