Last modified on 7 दिसम्बर 2008, at 10:19

करिश्मे ख़ूब मेरा जाँ-निसार करता था / ज्ञान प्रकाश विवेक

करिश्मे ख़ूब मेरा जाँनिसार करता था
मिला के हाथ वो पीछे से वार करता था

वो जब भी ठोंकता था कील मेरे सीने में
बड़ी अदा से उसे आर-पार करता था

सितारे तोड़ के लाया नहीं कोई अब तक
कि इस फ़रेब पे वो ऐतबार करता था

उसे पता था कि जीवन सफ़ेद चादर है
न जाने क्यूँ वो उसे दाग़दार करता था

कुछ इसलिए भी मुझे उसकी बात चुभती थी
कि वो ज़बान का ज़्यादा सिंगार करता था

पलट के आती नहीं है कभी नदी यारो
मैं जानता था मगर इन्तज़ार करता था.