सुख-दुख में सम भागी होते,करुणा सदय सँजोते हैं ।
कहते द्रवित हृदय को हम पर,आँसू नयन भिगोतें हैं ।
होगी निष्ठा कर्मों के प्रति, लक्ष्य साधता है मन भी,
संकल्पित को पूरा करना, धैर्य नहीं हम खोतें हैं ।
अहसास नहीं होता जिनको,अपनों को दुख देकर भी
स्वयं वही जन स्वार्थ सिद्धि में,खोकर सब कुछ रोते हैं ।
शूलों में गरिमा फूलों की,होती कभी न कम ज्यादा,
फूलों से सब नाता प्यारा,शूल कुटिल ही बोते हैं ।
कर्म भूमि अपनी धरती माँ,अंबर की छाया अपनी,
श्रम सीकर से जहाँ नहाकर,नींद चैन की सोते हैं ।
भाग्य भरोसे रह जाते जो, काया, माया साथ न देती,
पथ के हारे पथिक बने वे,माटी तन को ढोतें हैं।
प्रेम पथिक जीवन नौका यह, अनुकूल चलें धारा के,
मिलता सबका संबल यदि हम,विपरीत नहीं होते हैं ।