कर्जदार / अर्चना कुमारी
रात फड़फड़ाती रह जाती है बिस्तर पर
सिलवटों में रह जाती है लड़की
दीवारें भी चुप रह जाती हैं
सिसकियों पर...
औरत छूट जाती है सूजी पलकों
और भारी सर में
तकिए पर चिपके टूटे बाल
कहाँ गवाही देते हैं गालों पर टघरी बूँदों के...
खिड़कियों को चुन दिया गया है
सुर्ख ईंटों से
दरवाजों पर काढे गये हैं
सोने के बेल बूटे
वेन्टीलेटर के छोटे-छोटे छिद्रों में
बँट गयी है दुनिया कितनी......
इन्तजार की राहों पर कहाँ छूटी कोई नजर
छोड़ दिया बेवजह बड़बड़ाना
छूट जाता है हाथ से दूध का बर्तन
जरा सी तेज आवाज़ पर हड़बड़ाकर
जरा सी बढ जाती है सनसनाहट कानों की
जरा सा तेज उठता है धुआँ पेट में
जरा सा और मर जाता है मन...
खिलखिलाहटों के नाम लिखे ख़त
भभक उठते हैं काली रातों में
बिलबिलाती चुप्पियों की फसल
दहाड़ें मारती लोट जाती है जमीं पर
डूब गये हैं मेड़ खेतों के
दरक गये हैं कान के पर्दे
लबों पर इल्जाम है
लफ्जों की गैर-ईरादतन हत्या का...
आसाँ कुछ सोचने भर नहीं होता
पैर पटकती हैं बेचैनियाँ
जेहन पर बढती है धमक
डर से झुरझुरा जाती है नसें दिमाग की
पीठ तप उठता है खालीपन से
छाँव भी धूप हो जाती है जलकर...
भले ही झील में नहीं उतरा चाँद
नहीं बिखरा है किसी आँगन
न थामा हो किसी हथेली ने चेहरा
उजालों की जानिब अँधेरे का जिक्र हो न हो
जितनी गहराएगी अमावस
चाँदनी याद आएगी...
अपनी खिड़की पर
यादों की टेक लेकर
एक जरा रात गीली होगी
एक जरा नम होगी राह
और होगा चटक उदास चाँद
बिखरा हुअा...
घुँघरु वाले पाजेब
उधार रह गये हैं मौसम के खाते में
बाकि रहा गया लेने का हिसाब
मुफ्त,मुनाफ़ा खोर समय से
सूद चढता गया देह पर
औरत कर्जदार होती गयी...