कर्ज़ का तक़ाज़ा / राकेश खंडेलवाल
ज़िन्दगी ने फिर तकाज़ा कर्ज़ का मुझसे किया है
मूल में जो साँस पाईं, वे सभी कर खर्च डाली
नागफनियों की जड़ों को
आक-सत से सींच विधि ने
खाद डाली थी, धतूरे
पीस करके घोल सपने
यूँ उगी विष-बेल, लिपटीं
तन बदन से हो लतायें
और पीती वक्त के पल
हर निमिष बढ़ती व्यथायें
टोकरी यूँ तो भुजंगों की मिली सौगात में है
पर हजारों छेद उसमें किस तरह जाये संभाली
बीज बोये बिन उगी हैं
नित पिपासा पपड़ियों सी
आस की कलियाँ लुटी हैं
सूख झरती पंखुड़ियों सी
छार सपनों की चदरिया
रात वाली सेज कंटक
दे अभावों की दुल्हनिया
हर घड़ी आ द्वार दस्तक
नव-ग्रहों की वक्र गतियाँ रुक गईं हैं मोड़ पर आ
पूछती है अब दिशायें, क्या दशा जाये निकाली
ज्योति भारों से दबी अब
वर्तिका है लड़खड़ाती
कंठ के अवरुद्ध पथ से
कोई वाणी आ न पाती
लुट चुका पाथेय सारा
पंथ में भ्रम जाल अनगिन
नीड़ के धूमिल इशारे
पी रहे हर साँझ हर दिन
शाख से टूटे हुए हम चन्द जर्जर पत्तियों से
जो हवा की मiर्जयों पर जिस तरह चाहे उड़ा ली