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कर्ज़ की सीढ़ियाँ / महेश सन्तोषी

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मेरा, तुम्हारा, किसी का भी नहीं है यह शहर,
ये कर्ज़ में डूबी हुई बस्तियाँ, ये गिरवी रखे हुए घर!
एक कर्ज़ से दूसरे कर्ज़ तक का यह रोज का सफर,
दौड़ती हुई साँसों की प्रतिभूतियाँ,
हर ओर से उठते हाँफते हुए स्वर!

कल इसी तरह हम एक सदी से दूसरी सदी में जाएँगे,
चले जाएँगे,
और क्या हम आने वाली पीढ़ियों के लिए
साँसों को गिरवी रखने की वसीयतें छोड़ जाएँगे?

कर्ज़ की एक नयी सीढ़ी की तरह,
जब एक सीढ़ी ले लेगी
दूसरी पीढ़ी की जगह!