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कर्ज के मुखौटे / महेश सन्तोषी
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अगर कर्ज में मिलती कहीं मुखौटे की सभ्यता
तो हमने मुखौटे के कर्ज ले लिये होते
चारों तरफ होता मुखौटों का विकास
चेहरों के भीतर चेहरे छिपे हुए होते।
हमने हर तरफ पूछ कर देख लिया
कहीं पर कर्ज में विकास नहीं मिलता
हर शहर में मिलते हैं कर्ज के विकास-नगर
पर विकास-नगर में भी अब विकास नहीं मिलता।
सड़क पर टूटे हुए पुलों की तरह
विश्वास के पुल भी एक-एक कर टूट गये,
चारों तरफ बढ़ती गयीं अविश्वास की खाइयाँ
विकास से अविकास तक हम हर रोज ठगे गये।